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अंत क्या है?

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सागर इधर का अंत है या अंत है उधर वाला  प्रेम का आना अंत है या अंत है उसका लौट जाना  श्वास पहला अंत है या अंत है अंतिम वाला  सूर्य पूर्व का अंत है या अंत है पश्चिम वाला बेनाम अमीरी अंत है या अंत है प्रसिद्धि का आना  कवि सराहना अंत है या अंत है कवि हो जाना  पिता होना अंत है या अंत है पिता जैसा हो जाना    स्त्री का स्नेह अंत है या अंत है उसके क्रोध का आना  दर्शन होना अंत है या अंत है दार्शनिक बन जाना  माँ बनना अंत है या अंत है माँ का चले जाना   मैं स्वयं अंत हूँ या अंत है मेरा पुनर्जन्म में जाना   और मेरे भीतर के प्रश्न अंत है या अंत है मेरा मौन हो जाना

मुझे शुन्य हो जाना है।

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मुझे स्थिर हो जाना है, हिमाचल के गाँव के जीवन की तरह। मुझे सचेत हो जाना है, शिशु के रोते ही माँ की तरह। मुझे निष्पक्ष हो जाना है, बुद्ध के सिखाए धर्म की तरह। मुझे नीरव जो जाना है, प्रेम-धागे से बुनी स्त्री की तरह। मुझे मौन हो जाना है, विपश्यना करते संत की तरह। मुझे गतिहीन हो जाना है, विशाल पर्वत पर सनी बर्फ़ की तरह। मुझे मृत्यु हो जाना है, बीत चुके हर क्षण की तरह। मुझे सरल हो जाना है, जीवनज्ञान से पूर्ण मेरी प्रेमिका की तरह। मुझे शिथिल हो जाना है,   शेषनाग तले सो रहे विष्णु की तरह। मुझे सुगंध हो जाना है, कमल सुगन्धित द्रौपदी की तरह। मुझे जीवन हो जाना है, मनुष्य रहित वन की तरह। और मुझे शब्द हो जाना है, कवि द्वारा रचने वाली हर कविता की तरह।

प्रश्न, जो मौन है।

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मैं मौन सोया करता हूँ कितने ही स्वरों के बिस्तर पर, वो स्वर कोई सुन नहीं रहा, बस छोड़कर, रात के जुगनू और दिन के पक्षियों को।  लोभ और तृष्णा से भरे जीवित शव, कभी मेरे समीप आकर बैठ जाते है, रहस्य पूछते है इस मौन जीवन का, मैं उनसे, मौन रहकर उस रहस्य को स्पष्ट करता हूँ, भीतर रच रही मानसिक चिंताओं को नष्ट करता हूँ।  वर्ण करता हूँ उनसे, मौन रहना कितना ही आवश्यक है, जैसे दिन हो जाता है मौन रात में, जैसे साधक हो जाते है मौन गुरु-ज्ञानी की बात में, जैसे पक्षी हो जाते है मौन बरसात में।  पत्तियाँ झाड़ देता हूँ मोह की स्नेह के वृक्ष से, फिर तप करता हूँ उस वृक्ष के नीचे मौन होकर, जैसे एक पत्ती नदी की धारा के साथ बहती जाती है, शांत बहने लगता हूँ सुखद-दुःखद संवेदनाओं के साथ।    प्रश्न जो मौन थे, मौन से उनके उत्तर जान रहा हूँ, घृणा, स्वार्थ, अहंकार, और देह, सब झूठ है,  मौन में रहकर यह सच मान रहा हूँ।  

पहली भेंट

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तुम उस गीत का अंतरे के बाद का संगीत हो, जिसे गाया नहीं, गुनगुनाया जाता है। एक माँ, उस धुन से संधि करती है, शिशु को सुलाने वक़्त, इतनी नीरव हो तुम। तुम जब रोई थी,  एक चुप, भूखे और कमज़ोर बच्चे का सन्नाटा सुन्न, कुछ आंसू मुझ पर भी गिर गए थे,  मैंने अभी उन्हें पोंछा नहीं है, और पोंछने का मन भी नहीं है।  क्रोध से भिड़ता तुम्हारा स्नेह, मैंने ग्रहण कर लिया है। तुम्हारे हृदय में एक सांस ऐसी भी है,  जिसे एकांत में लेती हो तुम, मैंने उसकी धड़कन सुनी है,   बुद्ध जैसी, एकाग्र है। तुम यमुना हो उस रात की, जब कृष्ण ने इंसानी सांस ली थी, और मैं शायद उस कृष्ण का पाँव। तुम एक अध्यापिका हो, जिसे कुछ नहीं आता, बस प्रेम आता है।  तुम पंख भी हो उस उड़ान की,  जिसे मैं भरने वाला हूँ।  घर पहुँचने के लिए।

औरत का हृदय

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शीतल धड़कन कभी सुननी हो, तो स्तनों के भीतर थोड़ा झाँक लेना।  संगीत सुनाई दे अगर, तो नींद ले आना ब्रह्माण्ड में बज रहे सबसे मधुर संगीत में।  झाँक भी लेना तुम उन आँखों में, जहाँ स्नेह के झरने बहते है।  मुँह पर ओढ़ो अगर स्त्री के बालों को, जीवन की घनी रात में उजाला साक्षी होगा।  दिल में बज रही वात्सल्य की ध्वनि तक अगर पहुँच जाओ कभी, तो सचेत और अचेतन मन पवित्रता में नहा लेंगे।  संसार में रची जा चुकी रमणीय कविताओं को सुनना हो अगर, एक वैश्य के पास पुरुष वर्चस्व के वस्त्र उतार कर बैठ जाना, तुम्हें यह ज्ञान होगा, ईश्वर, ईश्वर तब कहलाया गया, जब औरत की रचना उससे हुई।  औरत का दिल अगर पढ़ लो कभी, तो तुम्हें भी कृष्ण की श्रेणी मिल सकती है। कल्पना में औरत को चूल्हे से निकाल दो तुम अगर, तो इस संसार में कितनी अमृता प्रीतम पुनर्जीवित हो सकती है, योग्य कर सकती है इस संसार को, फिरसे, रहने लायक़। 

प्रेम

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अर्थ समझना चाहूँ तो बुढ़ा पड़ जाऊँ ना समझना चाहूँ तो युवा ही मर जाऊँ उलझन में बैठूँ तो प्रेम खींच लाता है  सुलझते हए देखूँ तो प्रेम उलझा जाता है  स्त्री को समझूँ तो प्रेम हो जाता है  मर्द मारता देखूँ तो प्रेम खो जाता है द्रौपदी और कृष्ण को जानूँ तो प्रेम याद आता है  दुशासन को जानूँ तो प्रेम भाग जाता है  सहेली के साथ प्रेम सम्मान लगता है वैश्या के समक्ष प्रेम काम लगता है  प्रेम से मोह करूँ तो बंद सा लगता है ना ही करूँ तो दुर्गन्ध सा लगता है  प्रेम से देखूँ तो पृथ्वी में पल रहे जीव अपने लगते है प्रेम से मुँह फेरूँ तो सब अनुचित सपने लगते है  दर्पण में सजते तुम्हें जो देख लूँ तो प्रेम जीवित लगता है किसी और के समक्ष तुम्हें देखूँ तो प्रेम अजीवित लगता है स्वयं के चित्त को देख लूँ तो प्रेम जान जाऊँ कोशिश ना देखने की करूँ तो खुद को मृत मान जाऊँ प्रेम को समझ लूँ तो घना वृक्ष हो जाऊँ ब्रह्माण्ड को कविता सुनाता अंतरिक्ष हो जाऊँ

What's beyond Bitcoin? - Gopal Bansal

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For the past decade, I lived with the idea of Bitcoin, and decentralized networks and opened myself to the understanding of banking and decentralized finance (defi). I have lived in the crypto ecosystem, learned every day, and sometimes tried to write about it.  There was this thing that continued to poke me in my subconscious intellect. What’s beyond Bitcoin and the idea of cryptocurrencies and decentralization. I have had the mind to understand the value created by the brave browser for the content creators and advertisers and many more projects like these. I have listened to the podcasts of the wonderful economists & historians rejecting and accepting the idea of Bitcoin and I have seen the bear and bull phases of Bitcoin (and that hardly punches me).  Listening to Raul Paul (Real Vision Finance founder) last year, he mentioned the idea of the social tokens and that blew me off. Now, what are they? I happened to be in the exceptionally good company of the crypto philoso...