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तारे ओढ़ चाँद सोया हो

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मेरी कल्पना का आधार एक स्त्री है, तभी वह मृत घोषित नहीं की जा सकती, किन्ही भी हालातों में जीवित रहना उसे भाता है, दैनिक अनावश्यक कार्यों में व्यस्त रहती मेरी कल्पना, समय निकाल हर किरदार को पढ़ ही लेती है, किसी किरदार में वो एक मौन से संवाद करेगी, किसी में वो भ्रष्ट आत्मा से वाद- विवाद करेगी, होठों के पीछे छिपी बात सुनेगी, तर्क निकाल उचित शब्दों का जाल बुनेगी, हूबहू एक स्त्री है मेरी कल्पना। स्त्री का उपशब्द खूबसूरत भी होता है,  कल्पना भी मेरी वैसी ही है, वो सोते समय इतनी खूबसूरत हो जाती है, मानो तारे ओढ़ चाँद सोया हो, किसी जीव के प्रति द्वेष उसके आड़े नहीं आता, घृणा की राह को कभी नहीं जाता।   कल्पना मेरी एक स्त्री जैसी है, यकीन न हो, तो अपनी माँ, साथी, या बहन का चेहरा, कुछ देर खुली या बंद पलकों से देखिये, यशोदा ने कृष्ण के मुँह में जो देखा था, वही हूबहू तुम्हें भी दिखेगा। यदि इस संसार से बहुत प्रेम करना हो, अपनी कल्पना का आधार एक स्त्री रखो, इतना गहरा, बेशर्त प्रेम, एक स्त्री से बढ़के कोई और प्राणी नहीं कर सकता, ईश्वर भी नहीं।

सार

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सावन की ऋतु में भीगता पहला पक्षी, सागर से झूझता पहला किनारा, एक स्त्री का पहला प्रेम, एक मर्द का पहला आँसू, भुला नहीं, भुलाया जाता है।  पक्षी के पंख पर उस वर्षा का एक अंश मौजूद रहता है, लहरों से नए किनारा बन जाते है, पुराने का सबूत रहता है, स्त्री का प्रेम नया जन्म लेता है, पुराना मरता नहीं, मर्द का दिल भीगा रहता है, पर आँख कभी वो भरता नहीं।  सोचता हूँ, पक्षी कैसे जान लेता होगा वो सावन की बारिश है, उसके पास ऋतु-सूचि नहीं है। सागर कैसे पहले किनारे को समेट रखता है, शुद्ध मित्र के प्रेम की तरह। स्त्री कैसे इतना प्रेम कर सकती है, जो जीवन से भी प्रिय हो।  एक मर्द कैसे आँसू नहीं बहाता भरी भीड़ में, दिल भरे होने के बावजूद।  नकारात्मक और सकारात्मक चेतना से यही सवाल करता हूँ। उत्तर की जगह वो सावन की बारिश भेज देती है,  जिसे मैं सागर के किनारे पर खड़ा, स्त्री का पहला प्रेम बन स्वीकार कर लेता हूँ, आंसुओं से बारिश मिला, दिल खाली कर देता हूँ, और घर लौट आता हूँ। मेरे या एक मनुष्य के जीवन का यही सार है।

माँ

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पंछी ये जो हज़ार, निर्भय उड़ पा रहे है, उनकी माँ की ममता का आँचल हवा में ज़रूर घुला होगा। मैं कैसे राग मुक्त हो गया हूँ, मेरा चरित्र, मेरी माँ के साफ़ पालन से धुला होगा।   मेरी माँ जब तक मेरी लिखी एक कविता अपने साथ ले सो नहीं जाती, ऊँचे पर्वत पर लहराती मेरी कामयाबी और ज़िन्दगी, अधूरी रहेगी।  मैं वो क्षण समेट लूंगा अपनी आत्मा में,   जब मेरी माँ, मेरी लिखी एक नज़्म, अपनी आवाज़ में पूरी कहेगी।  मेरी माँ के सपने, बिन किसी को बताएं आंसुओं के साथ बह चले गए थे, अब उन्हें मेरे पास उछलती तरंगों से लड़, साहिल पर आना पड़ेगा। मैं उनको फिर से माँ के भोजन में परोस दूंगा,  आँख से नहीं, अब उनको माँ के लम्बे ओठों से बाहर जाना पड़ेगा। मेरी माँ में एक सुखद सुगंध है, वो खुशबू मैं अपनी कबर की मिट्टी में भर दूंगा।    कोई कब्रिस्तान पर रोने आया तो,  उनकी पीड़ा कम करने के लिए थोड़ी बाँट भी दिया करूंगा।  जैसे पतीले में बचा आखिरी चावल बिन लोभ वो बाँट देती थी।   मेरी माँ के पास एक साड़ी थी, मैंने उसे पर्दा बना अपनी खिड़की पर सजा र

पिता की तरह होने का डर।

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डर लगता है, मेरे पिता की लिखी गई भावपूर्ण प्रेम की उस पंक्ति से, जो शीतल हवा में घुलकर, उन पत्तियों को फिर से जीना सीखा देती है,  जिनके पेड़ से उसकी चिता की लकड़ियाँ तोड़ी गई थी, मैं इतना गहरा प्रेम कैसे इकट्ठा कर बाँट पाऊंगा। डर लगता है, पिता के आचरण से, जो कर्ण से रूबरू होता रहता था, लोभ विरोधी नब्ज़ को समेटे उसने प्राण त्यागे हैं, कर्ण को द्रोण मान लूँ, तो एकलव्य होने की इच्छा से भयभीत हो जाता हूँ। पिता एक जंगल जैसे थे, उनके भीतर उतरने के लिए कोई द्वार की आवश्यकता नहीं थी,  शून्य थे, और मैं वो शून्य से आगे बढ़ जाऊँगा कभी तो, डर जाता हूँ।  माँ की आँख में एक आँसू कोने पर बैठा रहता है, युद्ध करता हूँ वो न गिरे न भीतर जाए,  हास्य से जब माँ के होंठ लम्बे और गाल लाल होते है,  पिता का चित्र बन जाता है, सामान मुस्कान पिता को देखकर भी माँ दिया करती थी,  उसे कायम रखना भोज भरा कार्य है, मैं नहीं कर पाऊंगा, यही निराशा से डर जाता हूँ।  डर जाता हूँ, कब मित्र बन पाऊंगा पक्षियों से, जो पिता

घर लौट के आ जाना।

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साया तुम्हारा जब अकेला दोस्त रह जाये,  आँख का आखिरी आंसू तक बह जाये, तुम्हारी देह हर तरह का दर्द सह जाये,  और दुनिया का हर रिश्ता जब अलविदा कह जाये, तुम लौट के घर को आ जाना।  दिल की धड़कन से जब दुश्मनी होने लग जाये, ज़िन्दगी का मकसद अनजानी भीड़ में खोने लग जाये,  पदार्थवादी वस्तुओं को देख मन मोहने लग जाये,  त्रस्त अँधेरे में साहस की लौ जब खोने लग जाये,  तुम लौट के घर को आ जाना।  बेगाने संबंधों का ढेर जब तुम्हें छांटने लगे, असफलता का कीड़ा जब काटने लगे, अकेलापन, हृदय को टुकड़ों में बांटने लगे, द्वेष तुम्हारा, मुस्कुराहट को डांटने लगे, तुम लौट के घर को आ जाना। तुम लौट के आ जाना घर को। हम मद्धम आंच पर पक्की चाय के साथ, करेंगे तुम्हारी उपलब्धियों की बात।  तुम्हारी नींद जब गहरी हो जाएगी,  नकारात्मक अनुचित चेतना स्वयं बहरी हो जाएगी। माँ, निर्मल स्नेह की चादर ओढ़ सुला देगी, चाँद के संदूक में समेटी लोरियों को भी बुला लेगी।  गर्भ में बजती धड़कन का संगीत तुम्हें सुनाया जायेगा, आनंदित जीवन का सार एक बार फिर से गाया जायेगा। तुम लौट के बस घर को आ

मैं कौन हूँ?

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मैं कौन हूँ? शायद उस गहरे समंदर का पौधा हूँ, जिसका कोई काम नहीं है,  न उसे कोई खाता है, न उसकी कोई सुगंध है, गहरे नमकीन पानी में,  जब नज़दीक से कोई मछली गुज़रती है, या कोई लहर समंदर की ज़मीन को छूने आती है, बस लहर जाता हूँ, जैसे, एक बच्चा चेहरे पर ख़ुशी का आधा चाँद बना लेता है, खिलौना मिलने पर। शायद मैं वो तारा हूँ, जिसे कोई देखता नहीं,  ध्रुव के एकदम बगल वाला,  कभी कभी चाँद के नज़दीक आ जाता हूँ,  कोई कामना मांग ले, टूटता भी नहीं,  बस मौजूद हूँ,  ढेर सारे तारों के आकाश में,  एक दूध के समंदर की बूँद जैसा। शायद मैं उस माँ का बेटा हूँ,  जो कभी हारी नहीं,  ना ही कभी जीत पाई है,  पर खुश है,  मेरी ख़ुशी देख, या उस बाप की औलाद हूँ, जिसने छुपकर सिनेमा के पैसे दिए,  पहली शराब का घुट पिलाया, या उस शख्स का भाई हूँ,  जो पिता का नकाबपोश है ,  या चेला हूँ उस गुरु का, जो द्रोण तो है, पर मैं एकलव्य नहीं। कौन हूँ मैं? शायद वो हवा हूँ,  जो न ठंडी है न ही गर्म, जो  पत्तियों को हिलाकर नींद से जगाती है।  शायद एक किताब हूँ, छोटी छोटी कहानियों वाली, जिस में पूर्ण विरा