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Showing posts from March, 2020

पिता की तरह होने का डर।

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डर लगता है, मेरे पिता की लिखी गई भावपूर्ण प्रेम की उस पंक्ति से, जो शीतल हवा में घुलकर, उन पत्तियों को फिर से जीना सीखा देती है,  जिनके पेड़ से उसकी चिता की लकड़ियाँ तोड़ी गई थी, मैं इतना गहरा प्रेम कैसे इकट्ठा कर बाँट पाऊंगा। डर लगता है, पिता के आचरण से, जो कर्ण से रूबरू होता रहता था, लोभ विरोधी नब्ज़ को समेटे उसने प्राण त्यागे हैं, कर्ण को द्रोण मान लूँ, तो एकलव्य होने की इच्छा से भयभीत हो जाता हूँ। पिता एक जंगल जैसे थे, उनके भीतर उतरने के लिए कोई द्वार की आवश्यकता नहीं थी,  शून्य थे, और मैं वो शून्य से आगे बढ़ जाऊँगा कभी तो, डर जाता हूँ।  माँ की आँख में एक आँसू कोने पर बैठा रहता है, युद्ध करता हूँ वो न गिरे न भीतर जाए,  हास्य से जब माँ के होंठ लम्बे और गाल लाल होते है,  पिता का चित्र बन जाता है, सामान मुस्कान पिता को देखकर भी माँ दिया करती थी,  उसे कायम रखना भोज भरा कार्य है, मैं नहीं कर पाऊंगा, यही निराशा से डर जाता हूँ।  डर जाता हूँ, कब मित्र बन पाऊंगा पक्षियों से, जो पिता

घर लौट के आ जाना।

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साया तुम्हारा जब अकेला दोस्त रह जाये,  आँख का आखिरी आंसू तक बह जाये, तुम्हारी देह हर तरह का दर्द सह जाये,  और दुनिया का हर रिश्ता जब अलविदा कह जाये, तुम लौट के घर को आ जाना।  दिल की धड़कन से जब दुश्मनी होने लग जाये, ज़िन्दगी का मकसद अनजानी भीड़ में खोने लग जाये,  पदार्थवादी वस्तुओं को देख मन मोहने लग जाये,  त्रस्त अँधेरे में साहस की लौ जब खोने लग जाये,  तुम लौट के घर को आ जाना।  बेगाने संबंधों का ढेर जब तुम्हें छांटने लगे, असफलता का कीड़ा जब काटने लगे, अकेलापन, हृदय को टुकड़ों में बांटने लगे, द्वेष तुम्हारा, मुस्कुराहट को डांटने लगे, तुम लौट के घर को आ जाना। तुम लौट के आ जाना घर को। हम मद्धम आंच पर पक्की चाय के साथ, करेंगे तुम्हारी उपलब्धियों की बात।  तुम्हारी नींद जब गहरी हो जाएगी,  नकारात्मक अनुचित चेतना स्वयं बहरी हो जाएगी। माँ, निर्मल स्नेह की चादर ओढ़ सुला देगी, चाँद के संदूक में समेटी लोरियों को भी बुला लेगी।  गर्भ में बजती धड़कन का संगीत तुम्हें सुनाया जायेगा, आनंदित जीवन का सार एक बार फिर से गाया जायेगा। तुम लौट के बस घर को आ