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मुझे अभी दूर जाना है - गोपाल

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जहाँ अहम, ज्ञान की रौशनी को सुलाता है  दिन में व्यर्थ के सपनों को सजाता है  अपराध की दावत में झूठे तारों को भी बुलाता है मुझे उस रात से निकल दिन की और जाना है  अभी मुझे दूर जाना है    जहाँ आकाश से धरती दूर दिखती है इंसान की हर वासना धन मैं बिकती है कलम हर पल जहाँ हिंसा लिखती है मुझे वहाँ से दूर चले जाना है   जहाँ संबंध बस व्यापार के हैं  बहुमत मन, शत्रु, प्यार के हैं जहाँ नशीले गीत ऊँचे सुर पकड़ते हैं  मनुष्य मृत्यु से नहीं, अहंकार में अकड़ते हैं उस जीवन से मुझे दूर जाना है  जहाँ तक नेत्र सागर के दर्शन भरता है  सायं का भोजन जहाँ सूर्य करता है जहाँ संत, अज्ञान से भरे पड़े हैं प्रेम में भरी पड़ी क्रूरता की जड़ें हैं उन सबसे दूर रुक-रुक चले जाना है  मुझे अभी बहुत दूर जाना है   

हम फिर मिलेंगे

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चाँद आधा जब पूर्ण की और चल देगा  सूर्य जब सवेर को खिलने का बल देगा  हम वहाँ भोर में फिर मिलेंगे  तुम आना एक डब्बा दाना लेकर  मैं ले आऊंगा भूखे पक्षी कुछ  जब तक वह उन्हें चुगेंगे  छठ रही ओस में हम फिर मिलेंगे  केतली यादों की मैं लाऊँगा  कप और बातें तुम ले आना  आधा आधा कप साथ भरेंगे  अरसों बाद चाय पर फिर मिलेंगे  रौशनी भूखी जब तारे खा जाएगी काम निपटा चुकी माँ जब उठने की डाँट लगाएगी बस अभी उठ गए का जब झूठा वादा करेंगे  पौने जगे सपनों में हम फिर मिलेंगे

साधन हो तुम

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क्रोध से भरी भीड़ में अमन का साधन हो तुम   चक्रव्यूह में लड़ते अभिमन्यु के साहस का साधन हो तुम  देशों में चलती आ रही लंबी लड़ाई  की सुलह का साधन हो तुम  मेरे भीतर उठ रहे विवादों  को संवाद देने का साधन हो तुम हर क्षण घट रही मृत्यु  को जीवन देने का साधन हो तुम  घृणा में भटक रहे इस संसार  को अनुराग के राह का साधन हो तुम  साधन हो तुम  वृक्ष में अंकुरित ऋतु फल का  मेरे आज और इस समय के पल का  साधन हो तुम  मेरी रचना का, मेरे काव्य का, मेरे गीत का  साधन हो तुम  मेरे हृदय की धड़कन के संगीत का

मेरी कल्पना

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विशाल चट्टानों में से उपजा जो एक वृक्ष दिख रहा है  वैसे है मेरी कल्पना  मुठ्ठी में पकड़ी रेत जो सर सर गिरते चली जा रही है  वैसी है मेरी कल्पना  चिल्लाते शहर के शोर की जो वन से सुलह करवा रही है  वैसी है मेरी कल्पना  मृत्यु के आगमन पर जो नए जीवन का आभार मना रही है  वैसी है मेरी कल्पना  दुःख और सुख को भोगता से द्रष्टा की और जो ले जा रही है  वैसी है मेरी कल्पना  गहरे दब चुके ढेरों सत्य को जो खोद खोद प्रस्तुत करते चली जा रही है  वैसी है मेरी कल्पना स्त्री को पुरुष के भय से और पुरुष को स्त्री की देह से  जो मुक्त कर दे पा रही है ऐसी है मेरी कल्पना

घर क्या है?

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जीवित कोई नदी शांत सागर में बिन सड़क बने पहुँच रही हो वह घर है अनसुनी प्रतिभा, उपहास से उलझ कर विश्व प्रसिद्धि में पहुँच रही हो  वह घर है स्त्री की देह, दुर्बल नर की लठ से नहीं प्रेम की हठ से पहुँच रही हो वह घर है रात की नींद शारीरिक थकान से नहीं दिन के आभार और नए सूर्य की स्वीकृति से पहुँच रही हो वह घर है आस्था हमारी अप्राकृतिक कार्यों को ख़ारिज कर समता में पनप रहे जीवन दर्शन से हम तक पहुँच रही हो वह घर है   विभिन्न शैली की पुस्तकें अनावश्यक वस्त्रों को त्याग आप तक पहुँच रही हो वह घर है मृत्यु किसी भय से नहीं मधुर और संतुष्ट हास्य से लिपट कर पहुँच रही हो वह घर है

अंत क्या है?

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सागर इधर का अंत है या अंत है उधर वाला  प्रेम का आना अंत है या अंत है उसका लौट जाना  श्वास पहला अंत है या अंत है अंतिम वाला  सूर्य पूर्व का अंत है या अंत है पश्चिम वाला बेनाम अमीरी अंत है या अंत है प्रसिद्धि का आना  कवि सराहना अंत है या अंत है कवि हो जाना  पिता होना अंत है या अंत है पिता जैसा हो जाना    स्त्री का स्नेह अंत है या अंत है उसके क्रोध का आना  दर्शन होना अंत है या अंत है दार्शनिक बन जाना  माँ बनना अंत है या अंत है माँ का चले जाना   मैं स्वयं अंत हूँ या अंत है मेरा पुनर्जन्म में जाना   और मेरे भीतर के प्रश्न अंत है या अंत है मेरा मौन हो जाना

मुझे शुन्य हो जाना है।

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मुझे स्थिर हो जाना है, हिमाचल के गाँव के जीवन की तरह। मुझे सचेत हो जाना है, शिशु के रोते ही माँ की तरह। मुझे निष्पक्ष हो जाना है, बुद्ध के सिखाए धर्म की तरह। मुझे नीरव जो जाना है, प्रेम-धागे से बुनी स्त्री की तरह। मुझे मौन हो जाना है, विपश्यना करते संत की तरह। मुझे गतिहीन हो जाना है, विशाल पर्वत पर सनी बर्फ़ की तरह। मुझे मृत्यु हो जाना है, बीत चुके हर क्षण की तरह। मुझे सरल हो जाना है, जीवनज्ञान से पूर्ण मेरी प्रेमिका की तरह। मुझे शिथिल हो जाना है,   शेषनाग तले सो रहे विष्णु की तरह। मुझे सुगंध हो जाना है, कमल सुगन्धित द्रौपदी की तरह। मुझे जीवन हो जाना है, मनुष्य रहित वन की तरह। और मुझे शब्द हो जाना है, कवि द्वारा रचने वाली हर कविता की तरह।