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सार

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सावन की ऋतु में भीगता पहला पक्षी, सागर से झूझता पहला किनारा, एक स्त्री का पहला प्रेम, एक मर्द का पहला आँसू, भुला नहीं, भुलाया जाता है।  पक्षी के पंख पर उस वर्षा का एक अंश मौजूद रहता है, लहरों से नए किनारा बन जाते है, पुराने का सबूत रहता है, स्त्री का प्रेम नया जन्म लेता है, पुराना मरता नहीं, मर्द का दिल भीगा रहता है, पर आँख कभी वो भरता नहीं।  सोचता हूँ, पक्षी कैसे जान लेता होगा वो सावन की बारिश है, उसके पास ऋतु-सूचि नहीं है। सागर कैसे पहले किनारे को समेट रखता है, शुद्ध मित्र के प्रेम की तरह। स्त्री कैसे इतना प्रेम कर सकती है, जो जीवन से भी प्रिय हो।  एक मर्द कैसे आँसू नहीं बहाता भरी भीड़ में, दिल भरे होने के बावजूद।  नकारात्मक और सकारात्मक चेतना से यही सवाल करता हूँ। उत्तर की जगह वो सावन की बारिश भेज देती है,  जिसे मैं सागर के किनारे पर खड़ा, स्त्री का पहला प्रेम बन स्वीकार कर लेता हूँ, आंसुओं से बारिश मिला, दिल खाली कर देता हूँ, और घर लौट आता हूँ। मेरे या एक मनुष्य के जीवन का यही सार है।