तारे ओढ़ चाँद सोया हो


मेरी कल्पना का आधार एक स्त्री है,

तभी वह मृत घोषित नहीं की जा सकती,

किन्ही भी हालातों में जीवित रहना उसे भाता है,

दैनिक अनावश्यक कार्यों में व्यस्त रहती मेरी कल्पना,

समय निकाल हर किरदार को पढ़ ही लेती है,

किसी किरदार में वो एक मौन से संवाद करेगी,

किसी में वो भ्रष्ट आत्मा से वाद- विवाद करेगी,

होठों के पीछे छिपी बात सुनेगी,

तर्क निकाल उचित शब्दों का जाल बुनेगी,

हूबहू एक स्त्री है मेरी कल्पना।


स्त्री का उपशब्द खूबसूरत भी होता है, 

कल्पना भी मेरी वैसी ही है,

वो सोते समय इतनी खूबसूरत हो जाती है,

मानो तारे ओढ़ चाँद सोया हो,

किसी जीव के प्रति द्वेष उसके आड़े नहीं आता,

घृणा की राह को कभी नहीं जाता।  


कल्पना मेरी एक स्त्री जैसी है,

यकीन न हो,

तो अपनी माँ, साथी, या बहन का चेहरा,

कुछ देर खुली या बंद पलकों से देखिये,

यशोदा ने कृष्ण के मुँह में जो देखा था,

वही हूबहू तुम्हें भी दिखेगा।


यदि इस संसार से बहुत प्रेम करना हो,

अपनी कल्पना का आधार एक स्त्री रखो,

इतना गहरा, बेशर्त प्रेम,

एक स्त्री से बढ़के कोई और प्राणी नहीं कर सकता,

ईश्वर भी नहीं।


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