प्रश्न, जो मौन है।


मैं मौन सोया करता हूँ कितने ही स्वरों के बिस्तर पर,
वो स्वर कोई सुन नहीं रहा,
बस छोड़कर,
रात के जुगनू और दिन के पक्षियों को। 

लोभ और तृष्णा से भरे जीवित शव,
कभी मेरे समीप आकर बैठ जाते है,
रहस्य पूछते है इस मौन जीवन का,
मैं उनसे,
मौन रहकर उस रहस्य को स्पष्ट करता हूँ,
भीतर रच रही मानसिक चिंताओं को नष्ट करता हूँ। 

वर्ण करता हूँ उनसे,
मौन रहना कितना ही आवश्यक है,
जैसे दिन हो जाता है मौन रात में,
जैसे साधक हो जाते है मौन गुरु-ज्ञानी की बात में,
जैसे पक्षी हो जाते है मौन बरसात में। 

पत्तियाँ झाड़ देता हूँ मोह की स्नेह के वृक्ष से,
फिर तप करता हूँ उस वृक्ष के नीचे मौन होकर,
जैसे एक पत्ती नदी की धारा के साथ बहती जाती है,
शांत बहने लगता हूँ सुखद-दुःखद संवेदनाओं के साथ। 
 
प्रश्न जो मौन थे,
मौन से उनके उत्तर जान रहा हूँ,
घृणा, स्वार्थ, अहंकार, और देह, सब झूठ है, 
मौन में रहकर यह सच मान रहा हूँ।


 

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