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Showing posts from 2025

ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਰੁਸ ਕੇ ਕਿੱਥੇ ਜਾਣਾ

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ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਰੁਸ ਕੇ ਕਿੱਥੇ ਜਾਣਾ  ਬਾਗਾਂ ਤੋਂ ਵਿਛੜੀਆਂ ਕਲੀਆਂ ਚ  ਕੇ ਯਾਦਾਂ ਮੇਰੀਆਂ ਦੀਆਂ ਗਲੀਆਂ ਚ  ਜਿੱਥੇ ਰਾਤ ਨੂੰ ਚਾਨਣ ਜੱਗਦੇ ਨੇ ਮੇਰੇ ਗੀਤ ਹਵਾਵਾਂ ਚ ਵੱਗਦੇ ਨੇ  ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋ ਰੁੱਸ ਕੇ ਕਿੱਥੇ ਜਾਣਾ ਜਾਣਾ ਤੂੰ ਸੱਚੇ ਰੱਬ ਦੇ ਘਰ  ਜਾਂ ਵੈਨ ਪਾਉਂਦੀ ਦੁਨੀਆ ਜਬ ਦੇ ਘਰ  ਪ੍ਰੀਤਾਂ ਤੋ ਪਰੇ ਜਿੱਥੇ ਭੁੱਖ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ਜਾਂ ਤਣਾਅ ਤੋ ਦੂਰ ਜਿੱਥੇ ਕੁੱਖ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ  ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋ ਰੁੱਸ ਕੇ ਕਿੱਥੇ ਜਾਣਾ ਜਿੱਥੇ ਗੀਤਾਂ ਦੇ ਵਰਕਿਆਂ ਤੇ ਸਿਓਂਕ ਦਾ ਘਰ ਹੈ  ਪ੍ਰੇਮ ਕਹਾਣੀਆਂ ਨੂੰ ਜਿੱਥੇ ਵਿਛੋੜੇ ਦਾ ਵਰ ਹੈ  ਜਿੱਥੇ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੇ ਹੀਰ ਰਾਂਝਾ ਸਜਾਇਆ ਸੀ ਚੇਨਾਬ ਦੇ ਪਰੇ ਜਿੱਥੇ ਮਹੀਵਾਲ ਨੇ ਘਰ ਬਣਾਇਆ ਸੀ ਤੂੰ ਮੇਰੇ ਤੋ ਰੁੱਸ ਕੇ ਉਥੇ ਜਾਣਾ ਜਿੱਥੇ ਰੂਮੀ ਤੇ ਸ਼ਮਸ ਦੀ ਸੋਹਬਤ ਹੈ ਹਨੇਰੇ ਦੀ ਸੂਰਜਾਂ ਨਾਲ ਮੁਹੱਬਤ ਹੈ  ਜਿੱਥੇ ਘੜੀਆਂ ਕਦੇ ਵੀ ਰੁਕਦੀਆਂ ਨਹੀਂ  ਕੱਠ ਦੀਆਂ ਪ੍ਰੀਤਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਮੁਕਦੀਆਂ ਨਹੀਂ

ਆ ਮੇਰਾ ਸੱਜਣ, ਫੇਰ ਵੀਚਾਰੀਏ

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ਆ ਮੇਰਾ ਸੱਜਣ, ਫੇਰ ਵੀਚਾਰੀਏ  ਓਸਨੂ ਮੇਰੀ ਕਲਮ ਤੋਂ, ਫੇਰ ਨਿਹਾਰੀਏ  ਠਰਦੀ ਤੜਕੇ, ਪੈਲਾਂ ਪਾਉਂਦਾ, ਚਾਨਣ ਓਹਦਾ  ਧੁੱਪ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਨਿਗ੍ਹਾ, ਪਛਾਨਣ ਓਹਦਾ  ਫੂਲਾਂ ਨੂੰ ਇਤਰ, ਓਹਦੇ ਸਾਹ ਨੇ ਦੇਂਦੇ  ਸੁੱਕੇ ਗੀਤਾਂ ਨੂੰ ਪਾਣੀ, ਓਹਦੇ ਚਾਹ ਨੇ ਦੇਂਦੇ  ਬੁੱਕਲ ਓਹਦੀ, ਆਸਾਂ ਦੇ ਆਲ੍ਹਣੇ ਵਰਗੀ  ਸਿਆਲ ਦੀ ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ, ਬਲ੍ਹਦੇ, ਬਾਲ੍ਹਣੇ ਵਰਗੀ  ਰਾਤਾਂ ਨੂੰ ਚਾਨਣੀ, ਓਹੀ ਫੇਰਦਾ  ਹਿਜਰ ਦੀ ਬਿਮਾਰੀ ਨੂੰ ਫੈਲਣ ਤੋਂ, ਓਹੀ ਘੇਰਦਾ  ਓਹਦੇ ਹਾਸੇ ਹੇਠਾਂ, ਰੱਬ ਵੱਸਦਾ ਹੈ  ਓਹਦੀ ਗੱਲ਼ਾਂ ਸੁਨ, ਹਿਜ਼ਰ ਦਾ ਰੋਇਆ, ਫੇਰ ਹੱਸਦਾ ਹੈ  ਪਹਾੜ ਜੇ ਬਣ ਜਾਣ, ਹਾਣੀ ਓਹਦੇ ਮੀਠੀ ਛਬੀਲ ਵਰਤਾਣ, ਵੱਗਦੇ ਪਾਣੀ ਓਹਦੇ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਬੈਠਾ, ਮੇਰੀ ਔਖੀ ਰਾਤ ਲੰਗਾਉਂਦਾ ਹੈ  ਸੱਜਣ ਮੇਰਾ, ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਆਪਣੇ ਗੀਤ ਲਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ    ਸੱਜਣ ਮੇਰਾ ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਆਪਣੇ ਗੀਤ ਲਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ

कवि तीन प्रकार के होते है

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कवि तीन प्रकार के होते है  विद्रोही, दार्शनिक और प्रेमी  मंटो लिखे तो विद्रोह  कामू लिखे तो दर्शन  और बटालवी लिखे तो प्रेम  उपाधि इन्हें कवि की ही मिलती है  यह तीनों जोड़ है तिपहिया वाहन के ढो लेते है कितनी भावनाएँ इधर-उधर कवि होना चमत्कार नहीं है  जैसे वृक्ष हरा ही होता है  पर्वत ऊँचा, सागर गहरा  इंसान होता ही है कवि  शब्दकोष मन में रखना भी तो कविता है जैसे माँ रसोई में पड़ी गर्म तेल की छींट का दर्द रखती है मन में  जैसे पिता रख लेते है व्यापार के घाटे का क्रोध मन में  जैसे भूख में पले प्रेमी, रखे रहते है विरह का शोक मन में  हम सब कवि ही तो है  कुछ कविताएँ लिख रहे है और कुछ जी रहे है ईश्वर, प्रेत, डाकू, सरकार, दर्शन, प्रेम, इतिहास, आदि सब लिख लेते है कवि  कवि, सब कर सकता है  पर नहीं कर सकता वह ढोंग  प्रेम का, दर्शन का और विद्रोह का  उसे इन तीनों में से एक गुण में उतरना पड़ता है  तभी लिख सकता है वह प्रेम में किए गए विद्रोह के दर्शन  और कहलाया जाता है कवि

पिता के लिए पत्र

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पा, कैसे हो? यह प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता, जैसे नहीं मिलता अब छुपके से दिया गया जेब खर्च। जीवन बहुत साधारण सा है, इतना कुछ पास होने के बाद भी। पतंगे भी अब वो उत्साह नहीं दे पा रही। जिससे आप आखिरी बार मिले थे, मैं अब वो गोपी नहीं रहा हूँ। मुझे, मुझसे मिलने के लिए सिगरेट का सहारा लेना पड़ता है। आपकी पोती भी मुझे गोपी कह कर पुकारती है, जैसे आप पुकारते थे। पा, अगर पता होता जीवन ऐसा जाएगा आपके जाने के बाद, तो आपकी देह को कभी कहीं छोड़ कर न आता। मुझे आपकी तस्वीर ऐसे याद है कि आप हवेली वाले घर के बाहर वाले कमरे में एक टांग पे टांग चढ़ाकर बैठे है और पी रहे है चाय। पा, जो जब नहीं था, अब सब है, गाड़ी है वो भी दो। अच्छा ख़ासा धन है, कपड़े सब ले रखे है, फिर भी नींद आने से पहले यह हाथ ढूंढा करते है किसी की टाँगे, मालिश के लिए। मैं नहीं अब रखता खुद को यादों की संगत में, पर फिर भी जीवन में उदासी का आना तो लगा रहता है, आपके होते कम आती थी, पर अब उदासी निचोड़ ले जाती है। आपके दोनों बेटे बड़े हो गए है। अपने निर्णय खुद लेते है। खुद कमाते है, खुद खाते है। आप होते तो घर में बैठे क्या ही विश्राम करते। शादी हो गई ह...

बिरहा का गीत

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बिरहा का गीत ऐसा सुनाओ  रो ही पड़े बिछड़ी दो नदियाँ सुन्न करदे जो बिदाई होती दुल्हन जैसा वो गीत में सारे अधूरे प्रेम नम हो जाएँ माँ की धड़कन रुक गई हो ऐसा दर्द दे  वह बिरहा का गीत बटालवी, फिरसे जीवित हो कर गाए  और नुसरत का सुर उसपर संगीत सजाए  मुझे नहीं सुननी अब किसी कवि की कविताएँ  नहीं पड़ने अब प्रेम उपन्यास और पत्र  बिरहा का गीत मुझे पहाड़ बनाएगा  पहाड़ का रोना प्रलय जैसा है पहाड़ सह जाता है बर्फ़, धुप, वर्षा और कटाई  फिर भी खड़ा रहता है विशाल, अमन को ओढ़ कर मुझे बिरहा का गीत ऐसा सुनना है  रो पड़े मेरी माँ मेरा दुःख देखकर और बोले "उसे मैं मनाकर देखूँ"

धैर्य बैठा रहता है प्रेम के साथ

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प्रेम, धैर्य की संगिनी है जैसे सुर से लिपटा रहता है संगीत  माँ से ममता साधु से साधना मन से इच्छा वैसे ही धैर्य बैठा रहता है प्रेम के साथ  बात नहीं करते दोनों पर मृत्यु संभव है एक के भी छूटने से  प्रेम का काम वचन है और धैर्य का दर्शन  कहानियों की मुख्य भूमिका में रहते है प्रेमी जोड़े पर हाथ में हाथ लिए चलते होते है प्रेम और धैर्य दर्शन और संवाद जैसे है प्रेम और धैर्य  इनका साथ रहना ऐसा है  जैसा है वन में जीवन रहना एक का जाना, ले जाता है अपने साथ अमन तभी शहर भरें रहते है  मंद चेहरों से, भय के पहरों से पृथ्वी ने कितना ही धैर्य रखा होगा  तभी जग पाया प्रेम का जीवन  इन्हें अलग करना  देह से चेतना अलग करने जैसा है 

वन, माँ के गर्भ जैसा है

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  वन, माँ के गर्भ जैसा होता है, वहाँ नहीं होती खाने कमाने की चिंता, होता है बस धैर्य और चिंतन,  दूषित व्यवस्था वहाँ घर नहीं बनाती, वहाँ नहीं रहता शहर का शोर, वहाँ रहने के लिए पढ़ा लिखा होना आवश्यक नहीं है, वन बिन कुछ मांगे करता है आपका पालन और पोषण  शोर, घृणा, अन्याय संभव नहीं है वन में, उसके संविधान में सबका हिस्सा एक सा है, इंसान ने सबसे बड़ा पाप किया है शहर बनाकर,  जहाँ लकीरें खींच डाली कितनी सारी, वन में ईश्वर नहीं रहता, वह ख़ुद ईश्वर है, पाप पुण्य जाति अमीर ग़रीब रंग क़द ओहदा,  वहाँ नहीं है, वहाँ है बस शांत नींद, माँ के गर्भ जैसी, मनुष्य को चाहिए वन और वह खोज रहा है उसे शहर में, शहर में रहते है पांडव कौरव और कितने युद्ध, वन शरण देता है बस एकलव्य को, मन का मौन, कला की स्वतंत्रता प्रदान करता है बस वन, वन कभी नाराज़ नहीं होता मनुष्य की हिंसा से, वह ख़ुद को नष्ट करता रहता है धीरे-धीरे धीमे-धीमे  जैसे नष्ट करती रहती है विरह की दीमक प्रेमी के घर को 

प्रेम सितारों की गिनती की तरह है।

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प्रेमी लौट जाया करते है घर को पर प्रेम रहता है खड़ा  देखता है उन्हें दूर तक इस आस में वो उसे लेने आएंगे  आते है प्रेमी लौट कर उसके पास बार बार कितने प्रयास करते है उसे ले जाने को अपने साथ वो नहीं जाता उनके साथ  इसलिए नहीं वह नाराज़ है  इसलिए क्योंकि जब प्रेमी लौटते है  वो प्रेम में नहीं, प्रेम के ढोंग में होते है प्रेम तो एक माँ की तरह है  उसे याद नहीं रहता  दूर्व्यवहार, हिंसा और अशांति  उसे याद रहते है स्नेह, वात्सल्य और प्रतिबद्धता वह उस घर कभी नहीं लौट पाता  जहाँ संतान उसे वृद्ध आश्रम छोड़ आती है  प्रेम सितारों की गिनती की तरह है बार बार टूटने पर भी भरा रहता है आकाश में  प्रेम को आधे रास्ते छोड़ कर जाना ऐसा है जैसा है घर को छोड़ जाना  तुम समय पर न लौटे तो  उसे खा जाती है दीमक, कीट पतंगे और खालीपन प्रेम अगर जीवन में आए तो उसे ऐसे रखना जैसे रखते है मंदिर में ईश्वर को अगर जीवन एक पौधे जैसा है तो प्रेम, धूप और पानी सा आहार है

प्रेम का धैर्य से संबंध

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प्रेम का धैर्य से क्या संबंध है  प्रेम अगर पुल है तो धैर्य उसपर लगे फट्टे है  वही संबंध प्रेम कहानी को शब्द देता है  अगर प्रेम में धैर्य हो  तो लिखी  जा सकती   है कविताएँ, दोहे और गीत  यह आहार में नमक की तरह भी है धैर्य ही माँ को ले जाता है संतान प्रेम की ओर  प्रेम कहानी कोई भी पढ़ने बैठूँ  तो प्रेम से अधिक समझ आता है धैर्य  हो सकता है प्रेम, धैर्य ही हो एक घर में समृद्धि बिन धैर्य और प्रेम के नहीं आ सकती  मैं कितने ही काम गिन सकता हूँ  जो प्रेम से नहीं धैर्य से होते है  द्रौपदी का धैर्य, बुद्ध का धैर्य  जैविक खेती करने वाले का किसान का धैर्य  एक वैश्य का धैर्य और एक प्रेमी का धैर्य  एक धैर्य ही है जिसने सब बचा कर रखा है  प्रेम को भी  नहीं तो प्रेम अकेला  बिन बारिश का वर्षावन बन जाता

हाथ तुम्हारे जैसे देवधर की जड़ें

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जीवन का अर्थ जानना था, तो, चढ़ लिए पर्वत, तर ली नदियाँ-सागर, भटका रहा मैदानों में, उलझता रहा घने वनों में, भजन कर लिए काशी में, हज करली मक्के में, सुन आया मौलवियों को, अरदास कर आया गुरुओं को, पढ़ बैठा दर्शन और साहित्य, ग्रहण कर आया गीत और संगीत को, कविताएँ पढ़ली ढेर सारी, ना मिला कुछ सार ऐसा, जो जीवन के बाद भी रहे। और अब देख बैठा हूँ, नेत्र तुम्हारे, जहाँ है ईश्वर, हास्य देखा, जहाँ विराजी है मुक्ति, स्वर तुम्हारा, जैसे गुरु की बाणी, और केश जैसे, अंतरिक्ष की गंगा। मन तुम्हारा, वन सा निर्मल, हृदय तुम्हारा, करुणा की कविता, हाथ तुम्हारे, देवधर की जड़ें, साँस तुम्हारी, पत्तियों का संगीत, पूरी तुम, जैसे मोक्ष का द्वार, और प्रेम तुम्हारा, मेरे जीवन का सार

नई धरती का संविधान।

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जब कभी भी धरती का सृजन फिर से किया जाएगा, मैं चाहूँगा उसका संविधान तुम रचो। तुम लिखोगी कानून, प्रेम और करुणा के। तुम उस संविधान में जात-पात, अहिंसा, असमानता, अमीरी-गरीबी नहीं लिखोगी तुम लिखोगी अमन की बातें, तुम नहीं खींचोगी देशों की लकीरें, तुम्हारे कानून बातें करेंगे आसमान की, पेड़ और पौधों की, पक्षी और पशुओं की, सागर और पहाड़ों की, झरने और झीलों की। उस संविधान के कोई भी पन्ने पर रक्तपात न होगा, न ही उसमे होगा ईश्वर और न कोई परमेश्वर। सब साधारण से होंगे और भाषा होगी शालीनता की। मैं तो उसे धरती नहीं बुद्ध ग्रह बोलूँगा। उस समाज में जन्म से बुद्ध बनने की प्रक्रिया पढ़ाई जाएगी। उस संविधान के कानून स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करेंगे, न ही उसमे पैसे का लेनदेन किया जाएगा, छोटे-छोटे गांव बना देना तुम थोड़ी थोड़ी दूर, बच्चे कॉलेज स्कूल नहीं पड़ने जाएँगे, पढ़ेंगे वो बस अपने अनुभवों से, मुराकामी, बटालवी, रूमी और कामू के लेख समझाएंगे।  वह धरती एक सुन्दर सा कॉर्टून होगा, जहाँ हर व्यक्ति प्रेम से भरा हुआ है।  धरती का सृजन जब भी होगा, मैं चाहूँगा,  उसका संविधान तुम ही लिखना, क्यूँकि तुम लिख...