हाथ तुम्हारे जैसे देवधर की जड़ें
तो,
चढ़ लिए पर्वत,
तर ली नदियाँ-सागर,
भटका रहा मैदानों में,
उलझता रहा घने वनों में,
भजन कर लिए काशी में,
हज करली मक्के में,
सुन आया मौलवियों को,
अरदास कर आया गुरुओं को,
पढ़ बैठा दर्शन और साहित्य,
ग्रहण कर आया गीत और संगीत को,
कविताएँ पढ़ली ढेर सारी,
ना मिला कुछ सार ऐसा,
जो जीवन के बाद भी रहे।
और अब देख बैठा हूँ,
नेत्र तुम्हारे,
जहाँ है ईश्वर,
हास्य देखा, जहाँ विराजी है मुक्ति,
स्वर तुम्हारा, जैसे गुरु की बाणी,
और केश जैसे, अंतरिक्ष की गंगा।
मन तुम्हारा, वन सा निर्मल,
हृदय तुम्हारा, करुणा की कविता,
हाथ तुम्हारे, देवधर की जड़ें,
साँस तुम्हारी, पत्तियों का संगीत,
पूरी तुम, जैसे मोक्ष का द्वार,
और प्रेम तुम्हारा, मेरे जीवन का सार
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