जहाँ अहम, ज्ञान की रौशनी को सुलाता है दिन में व्यर्थ के सपनों को सजाता है अपराध की दावत में झूठे तारों को भी बुलाता है मुझे उस रात से निकल दिन की और जाना है अभी मुझे दूर जाना है जहाँ आकाश से धरती दूर दिखती है इंसान की हर वासना धन मैं बिकती है कलम हर पल जहाँ हिंसा लिखती है मुझे वहाँ से दूर चले जाना है जहाँ संबंध बस व्यापार के हैं बहुमत मन, शत्रु, प्यार के हैं जहाँ नशीले गीत ऊँचे सुर पकड़ते हैं मनुष्य मृत्यु से नहीं, अहंकार में अकड़ते हैं उस जीवन से मुझे दूर जाना है जहाँ तक नेत्र सागर के दर्शन भरता है सायं का भोजन जहाँ सूर्य करता है जहाँ संत, अज्ञान से भरे पड़े हैं प्रेम में भरी पड़ी क्रूरता की जड़ें हैं उन सबसे दूर रुक-रुक चले जाना है मुझे अभी बहुत दूर जाना है
चाँद आधा जब पूर्ण की और चल देगा सूर्य जब सवेर को खिलने का बल देगा हम वहाँ भोर में फिर मिलेंगे तुम आना एक डब्बा दाना लेकर मैं ले आऊंगा भूखे पक्षी कुछ जब तक वह उन्हें चुगेंगे छठ रही ओस में हम फिर मिलेंगे केतली यादों की मैं लाऊँगा कप और बातें तुम ले आना आधा आधा कप साथ भरेंगे अरसों बाद चाय पर फिर मिलेंगे रौशनी भूखी जब तारे खा जाएगी काम निपटा चुकी माँ जब उठने की डाँट लगाएगी बस अभी उठ गए का जब झूठा वादा करेंगे पौने जगे सपनों में हम फिर मिलेंगे
तुम वो किताब हो, जिसे आधा पढ़कर फाड़ दिया गया है, और पूरा पढ़ना अब असंभव सा लगता है। तुम टीवी पर बजता वो गीत हो, जिसका अंतरा आना अभी बाक़ी है, और बिजली चली गई हो। तुम दादी माँ द्वारा सुनाई जा रही कहानी हो, जो अभी आधी हुई है, और सुनाते-सुनाते वो खुद खर्राटे लगाने लगी है। तुम मेरे माँ और भाभी के काम की तरह हो, जो दिन भर करने के बाद भी, आधा रह जाता है। तुम मेरी आधी लिखी कविता हो, जिसमें अभी प्रेमी-प्रेमिका मिले ही है, और प्रेम करना अभी बाक़ी है। तुम मेरा जीवन भी हो, जिसे पूरा करना तुम्हारे बिना, अब कठिन लगता है।
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