थक गई हूँ।
नोट : यह आत्मिक दर्शन मेरे लिखे नहीं है। असीमित पसंद आया इसीलिए साँझा कर रहा हूँ।
"थक गई हूँ", यही आवाज़ बार बार कानों में एक घड़ी के अलार्म की तरह गूँजती रहती है। फिर देखती हूँ ख़ुद को आईने में और सहलाते हुए कहती हूँ, "बस थोड़ी देर और"।
जैसा एक बच्चा राह देखता है छुट्टी हो जाने के बाद अपने माता - पिता की, कुछ वैसा ही इंतज़ार मेरा है।
यह नहीं पता कि वो बच्चा घर जा कर क्या करेगा, पर शायद इसी उत्साह के साथ कि घर में माँ होगी जो प्यार भरे हाथों से खाना परोस देगी और फिर ममता की चादर ओढ़ सुला देगी। वह दिन भर की थकान भी दो पल के लिए गायब हो जाती है।
इंसान बेहद अजीब है, पहले पदार्थवादी वस्तुओं के पीछे भागते हुए सेहत और रिश्ते गवा देते है, और जब तक वह चीज़ें मिलती है, न सेहत रहती है और ना ही रिश्ते।
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