खिड़की खुली थी














खिड़की खुली थी
तुम्हारे इंतज़ार में
उडीक रही तुम्हारी एक झलक
सावन की बहार में

तुम न आई
दीमक उसे खा रही थी
बेल की पत्तो से ढक्की हुई
मौत की बाहों में वो समा रही थी

चाँद देखती वो हर रात
उससे करती रहती वो तुम्हारी बात
बादल आते ही डर जाती थी वो
न तुम नज़र आती न चाँद से बात कर पाती थी वो

वसंत भी गई
पतझड़ भी गया
जिस दौर तुम उसकी दोस्त थी
वो दौर गया तो कहाँ गया

कुछ ज़ज्बात तुम्हे बताना चाहती थी वो
तुम्हे साथ लिए पुराने दौर को दोहराना चाहती थी वो

खुली थी वो तुम्हारे इंतज़ार में
तुम न आई कोई भी बहार में

  

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