पिता की तरह होने का डर।
डर लगता है, मेरे पिता की लिखी गई भावपूर्ण प्रेम की उस पंक्ति से, जो शीतल हवा में घुलकर, उन पत्तियों को फिर से जीना सीखा देती है, जिनके पेड़ से उसकी चिता की लकड़ियाँ तोड़ी गई थी, मैं इतना गहरा प्रेम कैसे इकट्ठा कर बाँट पाऊंगा। डर लगता है, पिता के आचरण से, जो कर्ण से रूबरू होता रहता था, लोभ विरोधी नब्ज़ को समेटे उसने प्राण त्यागे हैं, कर्ण को द्रोण मान लूँ, तो एकलव्य होने की इच्छा से भयभीत हो जाता हूँ। पिता एक जंगल जैसे थे, उनके भीतर उतरने के लिए कोई द्वार की आवश्यकता नहीं थी, शून्य थे, और मैं वो शून्य से आगे बढ़ जाऊँगा कभी तो, डर जाता हूँ। माँ की आँख में एक आँसू कोने पर बैठा रहता है, युद्ध करता हूँ वो न गिरे न भीतर जाए, हास्य से जब माँ के होंठ लम्बे और गाल लाल होते है, पिता का चित्र बन जाता है, सामान मुस्कान पिता को देखकर भी माँ दिया करती थी, उसे कायम रखना भोज भरा कार्य है, मैं नहीं कर पाऊंगा, यही निराशा से डर जाता हूँ। डर जाता हूँ, कब मित्र ...