मेरी कल्पना
विशाल चट्टानों में से उपजा जो एक वृक्ष दिख रहा है वैसे है मेरी कल्पना मुठ्ठी में पकड़ी रेत जो सर सर गिरते चली जा रही है वैसी है मेरी कल्पना चिल्लाते शहर के शोर की जो वन से सुलह करवा रही है वैसी है मेरी कल्पना मृत्यु के आगमन पर जो नए जीवन का आभार मना रही है वैसी है मेरी कल्पना दुःख और सुख को भोगता से द्रष्टा की और जो ले जा रही है वैसी है मेरी कल्पना गहरे दब चुके ढेरों सत्य को जो खोद खोद प्रस्तुत करते चली जा रही है वैसी है मेरी कल्पना स्त्री को पुरुष के भय से और पुरुष को स्त्री की देह से जो मुक्त कर दे पा रही है ऐसी है मेरी कल्पना