चाँद से संभाषण
कल शाम फिर आसमान में नया चाँद खिला था , देख उसे प्रतिरात की तरह , झड़प हो गयी , वो आज फिर उसे देखने आया है , दूर से ही , पर फिर उसे निहारने आया है , देखने आया है क्यों कोई मुझसे अत्यंत नायाब है , सच है , यां नींद से भागा कोई ख़्वाब है। क्यों उसे रोशनी के लिए , सूरज की जरूरत नहीं , क्यों उसे सजने के लिए , शृंगार की जरूरत नहीं , क्यों वो भी अँधेरी रात में जलती लो की आस है , और क्यों वो मेरे नहीं प्रकृति के पास है। चाँद से गुज़ारिश की , कुछ बयां करो कैसी है वो , चाँद शरमा कर बोला , लेहरो से परे जो शांत समुन्दर है , वैसी है वो , जैसे घर सजता है , नई दुल्हन के पाँव लगे सिंदूर से , बस उसके आने से यही प्रकृति सजी थी , खुशबूदार फूलों से लभा-लभ। मुझे देखना है उसे , हठ की मैने , रो पड़ा चाँद , इस बार बदलो की गैरमौजूदकी में , लौट जा सुबह आने वाली है , ना नींद तुझे आती है न उसे आने वाली है। अमावस लेने आएगी मुझे , पर वो रहेगी दिया जलाने को , जो अक्सर मेरे भेजे बादल जाते है , हवा से भुजाने को। तू नहीं देख सकता उसे , झगड़ मत तू...