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प्रेम सितारों की गिनती की तरह है।

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प्रेमी लौट जाया करते है घर को पर प्रेम रहता है खड़ा  देखता है उन्हें दूर तक इस आस में वो उसे लेने आएंगे  आते है प्रेमी लौट कर उसके पास बार बार कितने प्रयास करते है उसे ले जाने को अपने साथ वो नहीं जाता उनके साथ  इसलिए नहीं वह नाराज़ है  इसलिए क्योंकि जब प्रेमी लौटते है  वो प्रेम में नहीं, प्रेम के ढोंग में होते है प्रेम तो एक माँ की तरह है  उसे याद नहीं रहता  दूर्व्यवहार, हिंसा और अशांति  उसे याद रहते है स्नेह, वात्सल्य और प्रतिबद्धता वह उस घर कभी नहीं लौट पाता  जहाँ संतान उसे वृद्ध आश्रम छोड़ आती है  प्रेम सितारों की गिनती की तरह है बार बार टूटने पर भी भरा रहता है आकाश में  प्रेम को आधे रास्ते छोड़ कर जाना ऐसा है जैसा है घर को छोड़ जाना  तुम समय पर न लौटे तो  उसे खा जाती है दीमक, कीट पतंगे और खालीपन प्रेम अगर जीवन में आए तो उसे ऐसे रखना जैसे रखते है मंदिर में ईश्वर को अगर जीवन एक पौधे जैसा है तो प्रेम, धूप और पानी सा आहार है

प्रेम का धैर्य से संबंध

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प्रेम का धैर्य से क्या संबंध है  प्रेम अगर पुल है तो धैर्य उसपर लगे फट्टे है  वही संबंध प्रेम कहानी को शब्द देता है  अगर प्रेम में धैर्य हो  तो लिखी  जा सकती   है कविताएँ, दोहे और गीत  यह आहार में नमक की तरह भी है धैर्य ही माँ को ले जाता है संतान प्रेम की ओर  प्रेम कहानी कोई भी पढ़ने बैठूँ  तो प्रेम से अधिक समझ आता है धैर्य  हो सकता है प्रेम, धैर्य ही हो एक घर में समृद्धि बिन धैर्य और प्रेम के नहीं आ सकती  मैं कितने ही काम गिन सकता हूँ  जो प्रेम से नहीं धैर्य से होते है  द्रौपदी का धैर्य, बुद्ध का धैर्य  जैविक खेती करने वाले का किसान का धैर्य  एक वैश्य का धैर्य और एक प्रेमी का धैर्य  एक धैर्य ही है जिसने सब बचा कर रखा है  प्रेम को भी  नहीं तो प्रेम अकेला  बिन बारिश का वर्षावन बन जाता

हाथ तुम्हारे जैसे देवधर की जड़ें

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जीवन का अर्थ जानना था, तो, चढ़ लिए पर्वत, तर ली नदियाँ-सागर, भटका रहा मैदानों में, उलझता रहा घने वनों में, भजन कर लिए काशी में, हज करली मक्के में, सुन आया मौलवियों को, अरदास कर आया गुरुओं को, पढ़ बैठा दर्शन और साहित्य, ग्रहण कर आया गीत और संगीत को, कविताएँ पढ़ली ढेर सारी, ना मिला कुछ सार ऐसा, जो जीवन के बाद भी रहे। और अब देख बैठा हूँ, नेत्र तुम्हारे, जहाँ है ईश्वर, हास्य देखा, जहाँ विराजी है मुक्ति, स्वर तुम्हारा, जैसे गुरु की बाणी, और केश जैसे, अंतरिक्ष की गंगा। मन तुम्हारा, वन सा निर्मल, हृदय तुम्हारा, करुणा की कविता, हाथ तुम्हारे, देवधर की जड़ें, साँस तुम्हारी, पत्तियों का संगीत, पूरी तुम, जैसे मोक्ष का द्वार, और प्रेम तुम्हारा, मेरे जीवन का सार

नई धरती का संविधान।

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जब कभी भी धरती का सृजन फिर से किया जाएगा, मैं चाहूँगा उसका संविधान तुम रचो। तुम लिखोगी कानून, प्रेम और करुणा के। तुम उस संविधान में जात-पात, अहिंसा, असमानता, अमीरी-गरीबी नहीं लिखोगी तुम लिखोगी अमन की बातें, तुम नहीं खींचोगी देशों की लकीरें, तुम्हारे कानून बातें करेंगे आसमान की, पेड़ और पौधों की, पक्षी और पशुओं की, सागर और पहाड़ों की, झरने और झीलों की। उस संविधान के कोई भी पन्ने पर रक्तपात न होगा, न ही उसमे होगा ईश्वर और न कोई परमेश्वर। सब साधारण से होंगे और भाषा होगी शालीनता की। मैं तो उसे धरती नहीं बुद्ध ग्रह बोलूँगा। उस समाज में जन्म से बुद्ध बनने की प्रक्रिया पढ़ाई जाएगी। उस संविधान के कानून स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करेंगे, न ही उसमे पैसे का लेनदेन किया जाएगा, छोटे-छोटे गांव बना देना तुम थोड़ी थोड़ी दूर, बच्चे कॉलेज स्कूल नहीं पड़ने जाएँगे, पढ़ेंगे वो बस अपने अनुभवों से, मुराकामी, बटालवी, रूमी और कामू के लेख समझाएंगे।  वह धरती एक सुन्दर सा कॉर्टून होगा, जहाँ हर व्यक्ति प्रेम से भरा हुआ है।  धरती का सृजन जब भी होगा, मैं चाहूँगा,  उसका संविधान तुम ही लिखना, क्यूँकि तुम लिख...

आधी तुम

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तुम वो किताब हो, जिसे आधा पढ़कर फाड़ दिया गया है, और पूरा पढ़ना अब असंभव सा लगता है। तुम टीवी पर बजता वो गीत हो, जिसका अंतरा आना अभी बाक़ी है, और बिजली चली गई हो। तुम दादी माँ द्वारा सुनाई जा रही कहानी हो, जो अभी आधी हुई है, और सुनाते-सुनाते वो खुद खर्राटे लगाने लगी है। तुम मेरे माँ और भाभी के काम की तरह हो, जो दिन भर करने के बाद भी, आधा रह जाता है। तुम मेरी आधी लिखी कविता हो, जिसमें अभी प्रेमी-प्रेमिका मिले ही है, और प्रेम करना अभी बाक़ी है। तुम मेरा जीवन भी हो, जिसे पूरा करना तुम्हारे बिना,  अब कठिन लगता है।

मुझे अभी दूर जाना है - गोपाल

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जहाँ अहम, ज्ञान की रौशनी को सुलाता है  दिन में व्यर्थ के सपनों को सजाता है  अपराध की दावत में झूठे तारों को भी बुलाता है मुझे उस रात से निकल दिन की और जाना है  अभी मुझे दूर जाना है    जहाँ आकाश से धरती दूर दिखती है इंसान की हर वासना धन मैं बिकती है कलम हर पल जहाँ हिंसा लिखती है मुझे वहाँ से दूर चले जाना है   जहाँ संबंध बस व्यापार के हैं  बहुमत मन, शत्रु, प्यार के हैं जहाँ नशीले गीत ऊँचे सुर पकड़ते हैं  मनुष्य मृत्यु से नहीं, अहंकार में अकड़ते हैं उस जीवन से मुझे दूर जाना है  जहाँ तक नेत्र सागर के दर्शन भरता है  सायं का भोजन जहाँ सूर्य करता है जहाँ संत, अज्ञान से भरे पड़े हैं प्रेम में भरी पड़ी क्रूरता की जड़ें हैं उन सबसे दूर रुक-रुक चले जाना है  मुझे अभी बहुत दूर जाना है   

हम फिर मिलेंगे

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चाँद आधा जब पूर्ण की और चल देगा  सूर्य जब सवेर को खिलने का बल देगा  हम वहाँ भोर में फिर मिलेंगे  तुम आना एक डब्बा दाना लेकर  मैं ले आऊंगा भूखे पक्षी कुछ  जब तक वह उन्हें चुगेंगे  छठ रही ओस में हम फिर मिलेंगे  केतली यादों की मैं लाऊँगा  कप और बातें तुम ले आना  आधा आधा कप साथ भरेंगे  अरसों बाद चाय पर फिर मिलेंगे  रौशनी भूखी जब तारे खा जाएगी काम निपटा चुकी माँ जब उठने की डाँट लगाएगी बस अभी उठ गए का जब झूठा वादा करेंगे  पौने जगे सपनों में हम फिर मिलेंगे